निकल पड़ी हैं बेटियां | Nikal Padi Hai Betiyan (Kavita)
काविश अज़ीज़ लेनिन एक पत्रकार हैं और लगातार लखनऊ प्रोटेस्ट को रात-रात भर कवर कर रही हैं। उन्होंने उन बेटियों के लिए ये कविता लिखी है जो दिन रात भूल कर संविधान को बचाने की ज़िद किये खुले आसमान के नीचे बैठी हैं।
तुम लगाओ हथकड़ी, तुम चलाव लाठियां।
अब मनाओ खैर तुम, निकल पड़ी हैं बेटियां।
सियासतों की आड़ में, जो जुल्म तुमने ढाए हैं।
रवायतों को तोड़कर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
ना डर पुलिस का है इन्हें, ना वर्दियों का खौफ है।
तुम्हारे तखत तोड़ने, निकल पड़ी हैं बेटियां।
मकान छीन लोगे तुम, दुकान छीन लोगे तुम।
तुम्हारे डर को रौंदने, निकल पड़ी है बेटियां।
लिबास में ही ढूंढते, रहोगे नाम धर्म तुम।
यहां तिरंगा ओढ़कर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
ये देहली की शाहीन हैं , ये लखनऊ की ज़ीनतें।
संभालने को मोर्चा, निकल पड़ी हैं बेटियां।
लगाओ जितने लांछन, लगाना है लगा ही लो।
ये गालियां नकारकर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
चुराके कंबलों को तुम, बिछौना छीन लेते हो।
कराके रोशनी को गुल, उजाला छीन लेते हो।
कभी हो मारते इन्हें, कभी हो कोसते इन्हें।
इन आदतों पे थूककर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
काविश अज़ीज़ लेनिन
निकल पड़ी हैं बेटियां
तुम लगाओ हथकड़ी, तुम चलाव लाठियां।
अब मनाओ खैर तुम, निकल पड़ी हैं बेटियां।
सियासतों की आड़ में, जो जुल्म तुमने ढाए हैं।
रवायतों को तोड़कर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
ना डर पुलिस का है इन्हें, ना वर्दियों का खौफ है।
तुम्हारे तखत तोड़ने, निकल पड़ी हैं बेटियां।
मकान छीन लोगे तुम, दुकान छीन लोगे तुम।
तुम्हारे डर को रौंदने, निकल पड़ी है बेटियां।
लिबास में ही ढूंढते, रहोगे नाम धर्म तुम।
यहां तिरंगा ओढ़कर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
ये देहली की शाहीन हैं , ये लखनऊ की ज़ीनतें।
संभालने को मोर्चा, निकल पड़ी हैं बेटियां।
लगाओ जितने लांछन, लगाना है लगा ही लो।
ये गालियां नकारकर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
चुराके कंबलों को तुम, बिछौना छीन लेते हो।
कराके रोशनी को गुल, उजाला छीन लेते हो।
कभी हो मारते इन्हें, कभी हो कोसते इन्हें।
इन आदतों पे थूककर, निकल पड़ी हैं बेटियां।
काविश अज़ीज़ लेनिन
निकल पड़ी हैं बेटियां | Nikal Padi Hai Betiyan (Kavita)
Reviewed by Shahzada
on
January 26, 2020
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